Nationalism in Vedas


Here's a list of well-known Sanskrit verses from the Vedas that talk about "Rashtravad," which is about building a strong nation. In these verses, the Vedas emphasize the importance of unity, fairness, and equality in society for the nation to grow. They also mention how leaders and wise people have a responsibility to make sure everyone in the nation is treated justly and that the society develops well.

ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम् ।
ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते ॥
(अथर्ववेद १२.१.५६)
(हे मातृभूमि ! जो तेरे ग्राम हैं, जो जंगल हैं, जो सभा - समिति अथवा संग्राम-स्थल हैं, हम उन में से किसी भी स्थान पर क्यों न हो सदा तेरे विषय में उत्तम ही विचार करें । तेरे हित का विचार हमारे मन में सदा बना रहे)

वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम ॥ (अथर्व० १२.१.६२)
(हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों)

मा नः स्तेन ईशतः ॥ (यजुर्वेद १/१)
(भ्रष्ट व चोर लोग हम पर शासन न करें)

यतेमहि स्वराज्ये ॥ (ऋ० ५.६६.६)
(हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें)

धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम ॥ (यजु० २९.३९)
(हम धनुष अर्थात् युद्ध-सामग्री से सब दिशाओं पर विजय प्राप्त करें)

सासह्याम पृतन्यतः ॥ (ऋ० १.८.४)
(हमला करने वाले शत्रु को हम पीछे हटा देवें)

माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ॥ (अथर्व० १२.१.१२)
(भूमि मेरी माता है और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूं)

उप सर्प मातरं भूमिमेताम् ॥ (ऋग्वेद : १०.१८.१०)
(हे मनुष्य ! तू इस मातृभूमि की सेवा कर)

नमो मात्रे पृथिव्ये, नमो मात्रे पृथिव्या: ॥ (यजुर्वेद ९.२२)
(मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो, हमारा बार-बार नमस्कार हो)

स नो रास्व राष्ट्रमिन्द्रजूतं
तस्य ते रातौ यशस: स्याम ॥ (अथर्ववेद : ६.३९.२)
(हे ईश्वर ! आप हमें परम ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र को प्रदान करें । हम आपके शुभ-दान में सदा यशस्वी होकर रहें)

उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा
अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता:
दीर्घं न आयु: प्रतिबुध्यमाना
वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम ॥ (अथर्व० १२.१.६२)
(हे मातृभूमि ! हम सर्व रोग-रहित और स्वस्थ होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें । तेरे अन्दर उत्पन्न और तैयार किए हुए स्वदेशी पदार्थ ही हमारे उपयोग में सदा आते रहें । हमारी आयु दीर्घ हो । हम ज्ञान-सम्पन्न होकर आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों तक की बलि को लाने वाले हों)

सत्यं बृहद्दतमुग्रं दीक्षा तपो
ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति ॥ (अथर्ववेद : १२.१.१)
(सत्य, विस्तृत अथवा विशाल ज्ञान, क्षात्र-बल, ब्रह्मचर्य आदि व्रत, सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना, धन और अन्न, स्वार्थ-त्याग, सेवा और परोपकार की भावना ये गुण हैं, जो पृथ्वी को धारण करने वाले हैं । इन सब भावनाओं को एक शब्द 'धर्म' के द्वारा धारित की जाती हैं)

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