Putrada Ekadashi Vrat Katha


एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित मानी गई है हर मास में 2 एकादशी तिथियां पड़ती हैं। पुत्रदा एकादशी वर्ष में दो बार आती है। एक बार श्रावण मास में और दूसरी बार पौष मास में। श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी और पौष मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पुत्रदा एकादशी का व्रत करने से साधक की पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण होती है। पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को श्रावण पुत्रदा एकादशी का व्रत पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से करना चाहिये।

श्रावण पुत्रदा एकादशी व्रत कथा:
धर्म ग्रंथों के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के विषय में पूछा तब उन्होने धर्मराज युधिष्ठिर को इस एकादशी के विषय में बताया था। भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को कहा, हे धर्मराज! श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी, पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी जैसे अलग अलग नामों से जाना जाता है।

इस का महात्म्य इसके नाम मे ही वर्णित है। इस एकादशी का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण होती हैं, इसलिए इसका एक नाम पुत्रदा एकादशी है। इसका व्रत करने से जातक के सभी पाप उतर जाते है, और निर्मल हो जाता है। पापियों को भी पवित्र कर देने के कारण इसे पवित्रोपना एकादशी और पवित्रा एकादशी कहा जाता है। इस एकादशी की व्रत कथा और महात्म्य कहने और सुनने से ही वायपेय यज्ञ के समान पुण्य फल प्राप्त होता है। फिर भगवान श्री कृष्ण ने कहा हे धर्मराज अब में आपसे पुत्रदा एकादशी की कथा कहता हूँ आप ध्यान से सुनिये।

प्राचीन काल में महिष्मति नगर पर महीजित नाम का एक राजा राज्य करता था। वह बहुत ही धार्मिक, कर्तव्य परायण, न्याय प्रिय और संतान के समान प्रजा का पालन करने वाला राजा था। उसके राज्य में प्रजा सुख और आनन्द का अनुभव करती थी।

राजा महीजित के कोई संतान नही थी इस कारण वो बहुत दुखी रहते थे। इस दुख के कारण उनको किसी भी चीज में आनंद का अनुभव नही होता था। उनको ऐसा लगता था कि बिना पुत्र के मनुष्य अपने पितृ ऋण से उऋण नही हो सकता। बिना संतान के मनुष्य ना तो इस लोक में सुख का अनुभव कर सकता है और ना ही परलोक में सुखी रहा सकता हैं। इसी दुख और चिंता के कारण राजा हमेशा चिंतित रहता। राजा ने पुत्र प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के उपाय किए परंतु उसकी मनोकामना पूर्ण नही हुई।

धीरे धीरे समय व्यतीत होता जा रहा था और राजा की चिंता और गहरी होती जा रही थी। राजा ने अपने मंत्रियों और गुरूजनों को बुला कर अपनी चिंता बताई। राजा ने उनसे कहा कि मैंने कभी प्रजा पर अन्याय नही किया, हमेशा उनसे अपनी संतान के समान प्रेम किया, कभी अनुचित ढ़ंग से धन अर्जित नही किया। हमेशा ब्राह्मणों को दान देकर संतुष्ट किया। यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास किया हैं। मैंने कभी किसी का धन नही छीना, कभी किसी से घृणा नही की, हमेशा सत्य और न्याय का साथ दिया हैं। मैंने सदा ही अपने से बड़ों का, गुरूओं का, ऋषि-मुनियों का आदर-सम्मान और सेवा की हैं। मैंने हमेशा धर्म का आचरण किया हैं, तो फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा हैं? क्यों मैं एक पुत्रहीन का जीवन जी रहा हूँ। आप सब तो ज्ञानी है, कृप्या मेरी इस चिंता के समाधान का कोई उपाय बतायें।

राजा की इस प्रकार के वचन सुनकर सबने राजा को सांत्वना दी और उन्हे जल्द ही उनकी चिंता के समाधान का विश्वास दिलाया। उसके बाद समस्त मंत्रीगण और गुरूजन आपस में मंत्रणा करने लगें। और सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि राजा के दुख के निवारण का उपाय ढ़ूंढ़ने के लिये सभी दिशाओं में प्रतिनिधि मण्ड़ल भेजें जायेंगे जो हर सम्भव प्रयास करेंगे जिससे राजा की चिंता का निवारण हो जायें।

ऐसा विचार करके शीघ्र ही प्रतिनिधि मण्ड़ल बना कर चारों दिशाओं में भेज दिये गयें। वो वनों में घूम-घूम कर ऋषि-मुनियों से मिले और सबसे अपने राजा के दुख को दूर करने का उपाय पूछा। इसी तरह वनों में भटकते भटकते वो लोमेश ऋषि के आश्रम में पहुँच गयें।

लोमेश ऋषि एक बहुत ही तेजस्वी, जितेंद्रीय, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, धर्म और विज्ञान के गूढ़ रहस्यों के जानने वाले और त्रिकालदर्शी थे। उन्होने लोमेश ऋषि को देखकर श्रद्धा से प्रणाम किया। तब लोमेश ऋषि ने उनसे वहाँ आने का प्रयोजन पूछा और उन्हे आश्स्वस्त किया कि मैं आपकी सहायता का पूर्ण प्रयास करूँगा।

लोमेश ऋषि से ऐसे आशापूर्ण वचन सुनकर उन्होने उन्हे सारी बात बता दी। वे बोले, हे ऋषिवर! हम बहुत आशा से आपके पास आये है। और हमे विश्वास है कि आप ही हमारे दुखों का अंत कर सकते है। हमारे राजा महीजित बहुत ही न्यायप्रिय, धर्म का पालन करने वाले, बड़ों का आदर सम्मान करने वाले, सत्य पर चलने वाले और प्रजा से प्रेम करने वाले है। ऐसे धर्मशील राजा के कोई पुत्र नही हैं और वो इसी बात से बहुत दुखी है। और हम उनका दुख दूर करने का उपाय चाहते हैं। और अब आपके पास आकर हमें ऐसा लगता है कि आप ही हमारी समस्या का निवारण करेंगे।

उन सबके वचन सुनकर ऋषि लोमेश ने अपने नेत्र बंद कर लिये और अपनी शक्ति से राजा के पूर्वजन्म की सारी कहानी जान ली। फिर थोड़ी देर पश्चात आँखे खोली और उस प्रतिनिधि मंड़ल के लोगों को राजा के पूर्व जन्म की कहानी सुनाने लगे। ऋषि लोमेश बोले आज का राजा महीजित पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था। और निर्धन होने के कारण धन प्राप्ति के लिये उसने बहुत से पाप युक्त कर्म किये।

एक बार ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन वो व्यापर के लिये दूसरे शहर जा रहा था। मार्ग में उसे कही भी खाने को कुछ नही मिला और पूरे दो दिन तक वो भूखा प्यासा जंगल मे भोजन और पानी की तलाश में भटकता फिर रहा था। वो दिन ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी का दिना था और वो भूख और प्यास से व्यथीत भटकता हुआ एक सरोवर के निकट पहुँच गया। उसने जब पानी देखा तो वो पानी पीने के लिये सरोवर के पास गया। तभी वहाँ पर एक प्यासी गाय भी पानी पीने आ गयी। तब उसने उस गाय को मार कर वहाँ से भगा दिया और उसे पानी नही पीने दिया।

पूर्वजन्म में राजा ने स्वयं पानी पीने के लिये एक प्यासी गाय को पानी नही पीने देने का अपराध किया था। दशमी तिथि से द्वादशी तक भूखा रहने के कारण अंजाने ही उससे एकादशी का व्रत हो गया था। उसी व्रत के पुण्य प्रभाव से वो इस जन्म में राजा बना हैं और उस गाय को पानी न पीने देने के कारण उसके आज कोई संतान नही हैं।

यह रहस्य जानने के बाद उन सभी ने ऋषि लोमिश से उस पूर्व जन्म के पाप के प्रायश्चित के विषय में पूछा तब उन्होने बताया कि उस पाप के प्रायश्चित और पुत्र प्राप्ति के लिये आप लोगों को राजा के साथ श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, उसका व्रत करना होगा। और आप लोगो को संकल्प के द्वारा अपने व्रत का पुण्य अपने राजा को देना होगा, जिससे उससे पूर्व जन्म के पाप का प्रायश्चित हो जाये और उसे पुत्र की प्राप्ति हो। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही आपके राजा के पूर्व जन्म के पाप का नाश होगा और उसकी पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण होगी।

ऋषि लोमेश के कथनानुसार उन सभी ने पूरी प्रजा के साथ पुत्रदा एकादशी (Shravan Putrada Ekadashi) का व्रत किया और रात भर जागरण किया। तत्पश्चात अगले दिन द्वादशी को संकल्प के द्वारा व्रत का पुण्य राजा को दे दिया। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से नौ माह पश्चात रानी ने एक बहुत ही तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। और राजा की मनोकामना पूर्ण हुई।

यह पूरी कहानी सुनाने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा हे धर्मराज! इस एकादशी का व्रत करने से मनुष्य की पुत्र पाने की कामना पूर्ण होती हैं। पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को यह व्रत अवश्य करना चाहिये। इस व्रत की कथा पढ़ने और सुनने से ही जातक के समस्त पापों का नाश हो जाता है और वो इस लोक में सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।

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